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सत्य धर्म की विशेषताएँ क्या हैं?

यह आवश्यक है कि सत्य धर्म इंसान की प्रथम फ़ितरत के अनुसार हो, जिसे बिना किसी मध्यस्थ के अपने सृष्टिकर्ता के साथ सीधे संबंध की आवश्यकता होती है और जो इंसान में सद्गुणों और अच्छे आचरणों का प्रतिनिधित्व करती है।

वह धर्म अनिवार्य रूप से एक हो, आसान हो, सरल हो, समझ में आने वाला हो, जटिल न हो तथा हर युग व स्थान के लिए उचित हो।

वह हर युग में इंसान की आवश्यकता के अनुसार, क़ानूनों में विविधता के साथ सभी नस्लों, देशों और हर प्रकार के इंसान के लिए स्थापित हो। वह मानव निर्मित रस्मों और रिवाजों की तरह न इच्छाओं के अनुसार की जाने वाली ज़्यादती को स्वीकार करे और न कमी को।

उसमें स्पष्ट आस्थाएँ हों, उसे किसी मध्यस्थ की ज़रूरत न हो और वह केवल भावनाओं पर आधारित न हो, बल्कि उसका आधार स्पष्ट एवं सही दलील पर हो।

उसके दायरे में जीवन की सारी समस्याओं के साथ-साथ हर युग एवं हर स्थान आता हो। इसी प्रकार उसे दुनिया एवं आख़िरत के अनुकूल होना चाहिए। वह आत्मा को बनाए, परन्तु शरीर को भी न भूले।

वह इंसान की जान, इज़्ज़त व सम्मान, धन, अधिकार एवं विवेक की रक्षा करे।

इस प्रकार जो व्यक्ति मानव स्वभाव के अनुसार आई हुई इस जीवन पद्धति का पालन नहीं करेगा, वह उथल-पुथल और अस्थिरता की स्थिति में रहेगा, बेचैनी महसूस करेगा और आख़िरत का अज़ाब तो अलग है।

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